रोशनदान पर शायरी, कवितायें

roshandaan shayari

रोशनदान शायरी | Roshandaan Shayari

कुछ उम्मीदें, कुछ सपने, कुछ महकी-महकी यादें,
जीने का मैं इतना ही सामान बचा पाया हूँ।
मुझमें शायद थोड़ा-सा आकाश कहीं पर होगा,
मैं जो घर के खिड़की रोशनदान बचा पाया हूँ।

अज्ञात

एक बुड्ढा आदमी है मुल्क में या यूँ कहो
इस अँधेरी कोठरी में एक रोशनदान है
मसलहत आमीज़ होते हैं सियासत के कदम
तू न समझेगा सियासत तू अभी इंसान है

दुष्यंत कुमार

पिनहाँ शिकंज में गुज़री है ज़िन्दगी कुछ इस कदर
अब रोने से भी चश्म में आँसू नही आता.
तेरे जाने से बन्द हुआ जो दिल का रोशनदान
कोई धूप का टुकड़ा भूले से भी इधर नही आता.

अज्ञात

ख़ुश्क हैं दरिया समुंदर कट गए जंगल तमाम
रेत से ख़ाली हुए जाते हैं रेगिस्तान भी
रोशनी भी चाहिए ताज़ा हवा के साथ साथ
खिड़कियाँ रखता हूँ अपने घर में रोशनदान भी

ख़ुर्शीद तलब

पत्थरों के शहर में कच्चे मकान कौन रखता है
आजकल हवा के लिए रोशनदान कौन रखता है

अज्ञात

जो ये दीवार का सुराख है, साजिश का हिस्सा है
मगर हम इसे अपने घर का रोशनदान कहते हैं।

राहत इंदौरी

तुम हो, किसी तैख़ाने मे रोशनदान की तरह
जैसे सुबह को मिलाता हो रात से कोई।

अज्ञात

वो बंद कमरे में रोशनदान देखा है तुमने
बस मेरी माँ उस रोशनदान सी है

अज्ञात

रोशनदान पर कविताएँ

मेरे रोशनदान में बैठा एक कबूतर

मेरे रोशनदान में बैठा एक कबूतर
जब अपनी मादा से गुटरगूँ कहता है
लगता है मेरे बारे में, उसने कोई बात कहीं।

शायद मेरा यूँ कमरे में आना और मुख़ल होना
उनको नावाजिब लगता है।

उनका घर है रोशनदान में
और मैं एक पड़ोसी हूँ
उनके सामने एक वसी आकाश का आंगन।

हम दरवाज़े भेड़ के, इन दरबों में बन्द हो जाते हैं,
उनके पर हैं, और परवाज़ ही खसलत है।

आठवीं, दसवीं मंज़िल के छज्जों पर वो,
बेख़ौफ़ टहलते रहते हैं।

हम भारी-भरकम, एक क़दम आगे रक्खा,
और नीचे गिर के फौत हुए।

बोले गुटरगूँ…

कितना वज़न लेकर चलते हैं ये इन्सान
कौन सी शै है इसके पास जो इतराता है
ये भी नहीं कि दो गज़ की परवाज़ करें

आँखें बन्द करता हूँ तो माथे के रोशनदान से अक्सर
मुझको गुटरगूँ की आवाज़ें आती हैं !!

गुलज़ार साहब

रोशनदान और खिड़कियाँ

ये रोशनदान
बहुत पुराने
हो चुके हैं
मकानों में
रहने वालों ने
मन बहलाती
आमोद-प्रमोद से भरी
हवा के झोंकों से
खड़खड़ाती
इतराती
हुई
खिड़कियाँ लगवा ली हैं
सच में
लोग बहुत सयाने
हो चुके हैं।

-अनुभूति गुप्ता

दादा हयात – Poetry on Roshandaan

दादा हयात ने घर के नक़्शे में ‘रोशनदान’ रखा था
हवा और धूप के साथ उसमे से ज़िन्दगी भी आती थी

अज़ान-ऐ-फज्र की आवाज़ आती थी, सारे घर को रेहमत से जगाती थी
रोशनदान पर कोयल आकर बैठ जाती थी, दादा को अपनी सी जान पाती थी

पड़ोस के पंडितजी की छत भी दिखाई देती थी रोशनदान से,
दादा उसी रोशनदान से उनके साथ ही सूर्य नमस्कार कर लेते थे
सुबह सुबह प्रणाम और आदाब गले मिल लेते थे
दिन भर राम रहीम फिर ख़ुशी ख़ुशी सफर में रहते थे

और तुम समझते हो रोशनदान से सिर्फ धूल आती हैं

मीठे आम की खुशबु और बेले के फूल की महक आती हैं
अब्दुल के बच्चे की किलकारियां भी साथ लाती हैं
और कभी कभी मोहब्बत की चिट्ठियां भी वही से फेंकी जाती हैं

बाजार की हलचल का शोर भी आता हैं
अपने साथ ज़िन्दगी के मोल भाओ लाता हैं

बूढी दादी उसी रोशनदान से आवाज़ लगा कर आम का अचार भिजवाती थी
और पड़ोस की नयी दुल्हन के गाने की आवाज़ भी वही से आती थी

और तुम समझते हो रोशनदान से सिर्फ धूल आती हैं

शाम को अच्छन मियां के रेडियो से बेगम अख्तर की आवाज़ आती थी
और रात होते होते उसी रोशनदान से चांदनी टपकने लग जाती थी
फिर रसूलन बाई के घुंघरू की आवाज़ उसी रोशनदान से आकर सुला जाती थी

ख्वाब भी उसी रोशनदान से आते थे
और ताबीर होने उसी रोशनदान से खुदा के घर जाते थे

लाल नीली और पीली पतंग उसी रोशनदान से सलाम करती थी
तो कबूतर के जोड़ो की दुनियां भी उसी रोशनदान पर सजती थी

रोशनदान के चार हिस्से, ऊपर के दो हिस्से
एक में माँ की ममता, दूजे में छोटे भाई का चंदा मामा रमता
नीचे के दो हिस्से, एक में बड़ी होती छोटी बहिन का दुपट्टा, दूजे में मेरी हसरतों का ख्वाब सजता

और तुम समझते हो रोशनदान से सिर्फ धूल आती हैं

अब पिताजी ने उस रोशनदान में एयर कंडीशनर लगवा दिया हैं
घर के साथ दिल भी ठन्डे हो गए हैं

ना धूप, ना हवा आती हैं और मेरी दुआ उस खुदा तक यूँ जाती हैं
कुछ ना सही धूल ही आ जाए
कोई याद ना करे और धूल के बहाने ही छींक आ जाए
खुदा करे रोशनदान से धूल ही आ जाए

-Tauseef Ahmed

रोशनदान – Poem on Roshandaan

फाल्स सीलिंग का जमाना है
रोशनदान अब बेगाना है ।
रोशनदान बन रहे कम
घौसले भी हो रहे कम।

चिड़ियों का मधुर संगीत
अब सुनाई नहीं पड़ता ,
तिनका तिनका जोड़ने का
संघर्ष अब दिखाई नही पड़ता।

रोशनदान से परे का
अब आसमान नहीं दिखता।
नीची छतों मैं कैद हो गए
मन के झरोखे बंद हो गए।

मन यायावर भटकता
इन्हीं बंद कमरों और दीवारों में
धूल जमी है बरसों से
रिश्तों मे सीलन अरसे से।

किरणों के प्रवेश का रास्ता रखो
शीतल हवा को आने दो,
जीवन को नया आयाम देने
मन का रोशनदान खुला रखो।

-अनीता श्रीवास्तव

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Editorial Team

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